एक बूँद इश्क - 1 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक बूँद इश्क - 1

एक बूँद इश्क

(1)

बहुत ही खूबसूरत अहसास है उसमें खो जाना। एक तरफ हरे-हरे पत्तों की वन्दनवार से सजी, लहराती, घुमावदार, संकरी सड़कें तो दूसरी ओर गहरी खाई से जल कलरव का गूँजता कोलाहल एक बार को दिल कँपा ही देता है। पथरीले पहाड़ों का सीना फाड़ कर मुस्कुराते फूलों के झुंड जब सरसराती हवा से लहलहाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वह पर्यटकों के स्वागत में संगीत की धुन पर थिरक रहे हों। उस पर अचानक बादलों का भीग कर आसमान पर छा जाना और अपने ही स्याह टुकड़ों पर रीझ कर बरस पड़ना, केवल तन ही नही भिगोता आत्मा को भी तृप्त कर जाता है।

दूर-दूर तक फैले चाय के सीढ़ीनुमा बागान स्वत: ही अपनी ओर खींच लेते हैं। जगह-जगह खेतों से चाय की हरी पत्तियों को टोकरी में जमा करती पहाड़ी औरतों का अपना ही आकर्षण है अपने काम में तल्लीन औरतों का समूह अपनी प्रादेशिक भाषा में कोई लोकगीत गाती हुई दिखाई पड़ती हैं, जिसकी भाषा तो पूरी तरह समझ में नही आती लेकिन हाँ, उनके भाव, उनकी एकरुपता, उस मिठास की खुशबू दूर-दूर तक फैल जाती है। आँगड़ी(पहाड़ी औरतों का पारम्परिक पहनावा) और घाघरी में लिपटी हुई औरतें, कान में मूखली, नाक में बुलांक और हाथों में खडुये पहने, कपड़ों से लदी, सुर्ख कपोलों को अपनी मुस्कान से विस्तार देती गोरी-चिटटी इन कर्मठ महिलाओं का सौंदर्य देखते ही बनता है जब वह नीचें से आने वाली गाड़ी को टकटकी लगा कर देखती हैं और फिर मुस्कुरा कर आपस में कुछ कहती हैं। कितना मासूम, सौम्य और सरल रुप है उनका, जहाँ रत्तीभर भी छल की गुंजाइश नही।

जहाँ एक तरफ ऊँचें-ऊँचें गगनचुंबी पहाड़ हैं तो दूसरी तरफ दूर तलहटी तक बहता छोटा सा निर्मल झरना, जो नीचें बहती गोमती से मिलने के लिये खुद को तलहटी तक उतार देता है। जिसकी संगीतमयी आवाज़ वहाँ की शान्ती को झंकृत करती हुई देह में एक कंपन सा छोड़ जाती है। जिसकी सरसराहट इतनी मधुर है मानों प्रेम के तारों को छेड़ती हुई बह रही हो .झरने के आस-पास के जल बिंदू अपने होठों से नम्र शिशु घास को चूमते हुये उन्हें अपने प्रेम से अलंकृत कर रहे हों, वहीं निश्छल, स्वच्छ प्रेम का स्पंदन उनकी हरितमा को बढ़ा कर चौगुना कर देता है। गुलाब, हरश्रृंगार और डेहलिया के फूलों से लदी उस घाटी में स्वर्ग की अनुभूति न हो ऐसा हो नही सकता। पंक्ति बद्ध खड़े बुरास और देवदार के घने वृक्ष उन मीठी हवाओं से सुर-में-सुर मिलाते हुये झूमते हैं और हवा की शीतलता हवा में घुल कर अठखेलियाँ करती है तो गुदगुदाने लगता है दिल का रोम-रोम। गुलाब और केबड़े की मिश्रित सुगन्ध हौले से नथुनों में घुस जाती है, तब उसकी मधुरता से भीगा हुआ मन झूमनें को व्याकुल हो जाता है। ऐसे अदभुत नजारों से होते हुये हौले-हौले ऊपर की तरफ सरकना मानों स्वर्ग की तरफ बढ़ना हो।

सुना है सुबह तड़के ही अमृत बेला में सूर्य चुपके से अपनी लालिमा को बिखेर देता है और उसका, अपने आने का आवहृन शर्माते हुये करना..यहाँ का सबसे खूबसूरत दृश्यों में से एक है। कहते हैं सूर्य इन्हीं पहाड़ों के आँचल से निकल कर ही बड़ा होता है। वह अपना शिशुकाल इसी की गोद में लुकाछिपी खेलता हुआ बिताता है। जब वह इसके आँगन में अपने नन्हें पांव को धरता है तो सभी दिशायें उसे अपनी गोद में उठाने को अधीर हो उठती हैं और तब वह दौड़ कर उन्हीं पहाड़ियों की गोद में छुप जाता है तो कभी आधा निकल कर, पहाड़ के सीने पर खड़े पेड़ों के झुरमुट से झाँकता है। उसका यूँ शर्म से लाल हो जाना समूचे आकाश को अपने रंग में रंग लेता है ओर फिर मोह पाश में बंधी भोर की किरण ठिठोली करती हुई कहती है- "अभी कुछ देर और खेल लो सखा.." मगर वह तो अनुशासन में बँधा है सो कल फिर मिलने का वायदा कर अपनी सुनहरी आभा को छोड़ता ऊपर आसमान में चढ़ जाता है।

ऐसा अनुपम, अकथनिय दृश्य जिसे देखने हजारों पर्यटक यहाँ आते हैं और ऐसे अप्रियतम नजारों को दिल में कैद कर वापस अपनी दुनिया में लौट जाते हैं।

ऐसे ही अदभुत नजारों से भरा पड़ा है कोसानी.....कोसानी, इसको पहाड़ों का स्वर्ग कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। वैसे भी इसको भारत का स्वीजरलैंड भी कहा जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ों की गोद में बसा वह शान्त इलाका है जो अपने भीतर बहुत से रत्न छुपाये हुये है।

खूबसूरती और प्रेमकथाओं के लिये दूर-दूर तक मशहूर है। इतना तीव्र आकर्षण है वहाँ के नजारों में कि, आने वाला अपना दिल उसकी क्षणिक मादकता में ही खो बैठता है। उन वादियों के नशे से शायद ही कोई बच पाया हो। कोई चैलेंज भी करें खुद को फिर भी उससे बाहर निकलना नामुमकिन है। सुध-बुध खोया स्वत: ही भीगता जाता है। फिर उसमें तरवतर होकर वह, वह नही रहता। वहाँ की अनवरत चलती शान्त, मधुर लहर उसे अपने आगोश में भर ही लेती है।

शायद प्रकृति का कवितामय हो कर इठलाना इसलिये भी हो सकता है कि यह सुमित्रानंदन पंत जैसे महान विचारक, दार्शनिक और कवि की जन्मस्थली भी है। जो प्रकृति की गोद में पल-पोस कर बढ़े हुये और आज भी उनके बिताये शैशवकाल के अंश उनकी धरोहर के रुप में यहाँ मौजूद हैं। जो भले ही जर्जर अवस्था में हों मगर उनके स्वरुप से बिल्कुल भी छेड़छाड़ नही की गयी है। प्रकृति के चितेरे पंत जी का घर अब 'सुमित्रानंदन पंत वीथिका' के नाम से परिवर्तन कर दिया गया है। जो उनकी लेखनी के आसमान का गवाह है। शायद ये मौसम, ये नजारें और ये नैसर्गिक सौन्दर्य ही रहा होगा जिसने उनकी कविताओं को रस से लबालब भर दिया। उनकी बहुत सी कविताओं में इसका प्रमाण मिलता है-

"प्रथम रश्मि का आना रंगिनी

तूने कैसे पहचाना?

कहाँ-कहाँ है बाल- विहंगिनी!

पाया, तूने ये जाना?"

कवि चिड़ियों से पूछ रहा है कि तुमने कैसे जाना? कि सूर्य के निकलने का समय हो गया है.....

अहा!...कितने रस से भरी है उनकी नैसर्गिक कवितायें? जैसे दूर तक फैली पर्वत श्रृंखलाओं में अठखेलियाँ कर रही हों और उन सुगन्धित वादियों ने उन्हें अपने नूर से नहला दिया हो!

"काले बादल में रहती चाँदी की रेखा......"

इस कविता में भी कवि ने बादलों का जिक्र किया है।

देश को पंत जी जैसा प्रकृति सुकुमार देने वाली ये घाटियाँ, यहाँ की अदभुत वादियाँ, नजारें और चंचल समां ही है।

फिर भला, ऐसा कौन होगा जो इस अनुपम सौन्दर्य देख कर उससे अछूता रह पायेगा?

रीमा ने बालकनी तक पहुँचने के लिये फर्श तक लटकते लम्बे, रेशमी परदों को सरका दिया। कांच के स्लाइडिंग डोर से बाहर निकलते हुये उसने अपने भीगे बालों के बँधें जूड़े को खोला और बालकनी में आ गयी। वैसे तो इस बालकनी की बाहरी रेलिंग ठोस लकड़ी के लटठों से बनी है जिसके बीच की नक्काशी का काफी हिस्सा एकदम खाली और दूरी पर है जहाँ से पतला-दुबला व्यक्ति आसानी से नीचें गिर सकता है। ये बात अलग है कि वह पुरानी होने के बावजूद बड़ी मजबूत है फिर भी वहाँ से खाई को देखना बड़ा ही रोमांच और भय पैदा करता है।

चारों तरफ फैली रंग-बिरंगें फूलों की भीनी-भीनी सुगंध उसकी नाक से लेकर रुह तक में अपना अधिकार जमाने लगी है। बालों से टपकती बूँदों का कन्धें को छूना झुरझुरी पैदा कर रहा है, प्राकृतिक रंगों में जड़ा अदभुत, अविस्मरणीय नजारा किसी ख्बाव गाह की तरह है, जो कल्पना से भी परे है। बालकनी के ठीक सामने खामोश चादर में लिपटी मन्द-मन्द मुस्काती ऊँची पहाड़ियाँ हैं जो खिलें हुये फूलों से समूची लदी हैं, लाल, बैंगनी, सफेद, गुलाबी रंगों की छटा ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी कलाकार ने उसे अपने हस्तकौशल की कूची से उकेरा हो, जिसको देखती ही वह अनायास ही खुशी से झूम उठी- "अहा! कितना सुन्दर दृश्य है? ....हाऊ मच ब्यूटिफुल....मैं खो न जाऊँ यहाँ? माई गॉड! मुझे पहले क्यों नही पता था कि कोसानी इतना खूबसूरत है? अगर पता होता तो मैं कब की यहाँ आ गयी होती? अब कैसे वापस जाऊँगी यहाँ से?"

अपने दोनों हाथों को फैला कर उसने आँखें बन्द कर ली हैं। वह उसे भीतर तक उतारना चाहती है, उसकी खूबसूरती में डूब रही है। कल्पनाओं के अनगिनत चाँद वास्तविकता के आकाश पर जड़े हैं। ऐसा लग रहा है वह खुद को भूलती जा रही हो। शरीर ढीला पड़ता जा रहा है और पैर जकड़ने लगे हैं। बालकनी की रेलिंग न होती तो वह उड़ कर उन वादियों में घुल गयी होती।

अभी वह अपने बस में नही है, उन नजारों में गहरे डूबी हुई है कि यकायक उसकी आँखों के सामने कुछ टूटी-फूटी सफेद-काली तस्वीरें घूमने लगी हैं।

एक के बाद एक कई तस्वीरों का उलझा सा जाल है जिसमें कुछ अधूरी, कुछ धुँधली हैं और कुछ बार-बार आकर लुप्त हो रही हैं। कई तस्वीरों के सिर्फ नगेटिव बन के उभरे हैं। एक अजीब सी बेचैनी होने लगी है। दिल की धड़कनें सहसा ही तेज हो रहीं हैं। पैरों की जकड़न बढ़ती जा रही है, अभी तक जिन मनोहरम द्रश्यों का आँखें रसपान कर रहीं थीं अब वही व्याकुल होने लगी हैं। अक्सर ऐसा होता है जब आप टेलीविजन पर कोई फिल्म या वीडीओ देख रहे होते हैं और वह आपके दिल को छू जाती है तो वह न चलते हुये भी आपके दिमाग में हलचल मचाये रहती है। कहीँ ये उनमें से तो कुछ नही? रीमा तमाम सवालों से खुद ही जूझ रही है। लेकिन यह उन सब से अलग हैं।

वह बालकनी में फिज़ूल की चहल-कदमी कर रही है। उसे समझ में नही आ रहा है कि उसके साथ ये क्या हो रहा है? इन अजीब सी तस्वीरों से उसका क्या लेना-देना है? और फिर ये उसकी जिन्दगी का हिस्सा भी नही हैं, फिर ये कहाँ से आईं? और कौन है इन तस्वीरों में...सब धुँधला है कुछ भी साफ दिखाई नही दे रहा है।

ये कैसी व्याकुलता है? कैसी अकुलाहट है? जिसने पल भर में ह्रदय की तरंगों का रूप ही बदल दिया। रीमा बालकनी से अन्दर आ गयी और सोफे की पुश्त पर सिर टिका कर धंस गयी है, एकदम बेजान सी।

लेकिन उन अन्जान तस्वीरों की आवा-जाही जारी हैं। दिमाग पर जोर डालने पर भी कुछ समझ में नही आ रहा है। खुद को रिलैक्स करने के लिये उसने घण्टीं बजा कर एक कप कॉफी आर्डर की है।

कोसानी का ये सबसे खूबसूरत, पुराना और आरामदायक रिजार्ट है, आरामदायक और खूबसूरत से मतलब यहाँ आधुनिक सुविधाओं से नही है बल्कि कहने का तात्पर्य नैसर्गिक सौन्दर्य और उसकी अदभुत छटा से है। जो इसके चारों तरफ रचा बसा है, जिसे हाथ बढ़ा कर छुआ जा सकता है। आराम पसंद लोग इस रिजार्ट में बिल्कुल नही आते। यहाँ तो वही आता है जिसका दिल प्रकृति से जुड़ा हो या फिर डाक्टर के द्वारा शुद्ध आक्सीजन लेने की सलाह दी गयी हो। अगर आसमान से खड़े होकर देखा जाये तो लगेगा कि हरे मखमली लिहाफ में कोई बालक दुबक गया है और वादियों का आनन्द ले रहा है।

रीमा कुछ दिन आउटिंग के लिये आई है। इस रिजार्ट को उसने बड़ी मशक्कत के बाद तब चुना जब दिव्या ने उसे इसका सुझाव दिया ये कह कर - 'अगर प्रकृति के वास्तविक सौन्दर्य को मन की आँखों से देखना है तो यही वह जगह है जहाँ पत्ते-पत्ते में रोमांस को महसूस किया जा सकता है। अदभुत नजारों से खुद को रु-ब-रु किया जा सकता है। बिल्कुल पहाड़ियों की गोद में बसा यह छोटा सा कसबा अपने अन्दर बहुत सी कहानियों को समेटे हुये है और उस पर भी यह 'कान्हू' रिजार्ट, जो अधिकाशतः काठ से बना है इसका आधुनिकीकरण आज भी नही हुआ है फिर भी सबसे सुन्दर जगह है। अब यहाँ सुविधाओं के आभाव में ज्यादा लोग नही ठहरते। कृत्रिम उपकरणों से दूरी बनाये हुये पुरानी विरासत को समेटे इसमें अपना ही आकर्षण है। रिजार्ट मालिक इसकी प्राकृतिक सुन्दरता को यूँ ही रखना चाहता होगा या फिर दूसरी कोई बजह हो मुझे नही पता, बस इतना जानती हूँ कि यहाँ वही आकर ठहरते हैं जो प्रेमी हैं। बहुत सारे प्रेमी जोड़े छुपते-छुपाते यहाँ दिखाई पड़ जायेगें।'

"ठीक है दिव्या हमें यहीं ठहरना है।" बस इतना जान-सुन कर वह यहाँ चली आई।

इस कस्बे में आने के बाद बेहद संकरे और ढलानदार रास्ते से होती हुई वह 'कान्हु रिजार्ट' तक पहुँची है। एक तरफ गहरी खाई और उसके सहारे चलते इक्का-दुक्का टैम्पो हैं जो यहाँ तक पहुँचाने को तैयार होते हैं। उसका एक कारण यह भी है कि यहाँ की भरपूर सवारियाँ उन्हें नही मिलती इसलिये मुँह माँगे पैसे लेकर ही छोड़ते हैं।

रास्ते भर एक अदभुत सा रोमांच रहा। जैसे-जैसे वह ऊपर की तरफ बढ़ रही है वहाँ की हवा में घुलती जा रही है। टैम्पो का ड्राइवर भी बड़ा जानकार और खुश मिजाज है। उसका बातूनी होना रीमा को भा रहा है और वह उससे सवाल-पर-सवाल कर रही है। जिसका जवाब भी वह सटाक से देता है फिर सिर खुजला कर यह भी कहता है -"मेमशाव, शायद ऐसा ही है । यह कहानी या जानकारी पुख्ता है या नही इसका कोई प्रमाण तो नही मगर सुना तो यही है।"

उसके इस तरह मासूमियत से बोलने पर रीमा कई बार खिलखिला कर हँस पड़ी।

'कान्हू रिजार्ट' के सामने टैम्पो किरररर की आवाज के साथ रुक गया। रीमा ने उसे नजर उठा कर देखा तो कुछ अजीब सा महसूस हुआ। उसके दिल में वहाँ रहने की गुदगुदाहट हो रही है। वह सोच रही है कि कई बार फाइवस्टार होटलों में रूकी है लग्जरी होटल, सुविधायें, ऊँची शानदार इमारत मगर कभी ये गुदगुदाहट नही हुई जो आज हो रही है। शायद यह शोर-शराबे और आडम्बर से दूर है इसलिये?

महानगरों की भागमभाग और ऊबाऊ जिन्दगी से कुछ पल चुरा कर एकान्त बास में रहना उसने खुद ही चुना है। इसीलिये वह यहाँ सिर्फ खुद के साथ है। परेश को घूमने-फिरने का कोई खास शौक नही है वह तो अपने विजनेस के आगे उसे भी छोड़ दे। दोनों का स्वभाव एकदम उलट, इसीलिये उन दोनों में कुछ खास नही पटती है। रीमा निहायती भावुक और दिल से सोचने वाली तो परेश उतना ही प्रैक्टिकल।

यूँ तो कई बार घूमने का प्रोग्राम बना भी मगर हर बार कोई-न-कोई बजह बन ही गयी कि वह विजनेस को नही छोड़ पाया। सिर्फ हनीमून के लिये स्वीजरलैंड गये थे वह लोग, वह भी न जाने कैसे रूक पाया था आठ दिन? वहाँ भी लैपटॉप पर ऑफिस चलता रहा उसका।

रीमा के अन्दर एक खालीपन की शुरुआत वहीं से हो गयी थी। वह चाहती थी रोमांस में डूब जाना, जी भर के प्यार करना और एक यादगर पल बिताना। अपने जीवन साथी के साथ जी भर जीना। कभी बर्फ के गोले बना कर बच्चों की तरह उछालना तो कभी सर्द हवाओं से ठिठुर कर उसकी बाहों में समा जाना। घण्टों बैठ कर एक-दूसरे को देखना और छुअन के अहसास को भर लेना।

ऐसा नही है परेश ने रोमांस नही किया या उसकी उपेक्षा की। उसने अपना दायित्व ईमानदारी से निभाया। स्वीजरलैंड उनके अंतरंग पलों का गवाह भी बना। बस सब एक काम की तरह था। रीमा यही नही चाहती थी, वह चाहती थी कि प्यार में बेईमानी की जाये, छेड़-छाड़, रूठना-मनाना और बेहिसाब प्यार, जिसकी कोई सीमा ही न हो...बस प्यार करे....अथाह प्यार...और कुछ नही।

अत्यधिक प्यार पर पाबन्दी परेश ने खुद ही लगाई है- 'किसी भी चीज में इतना मत बहो कि वह तुम्हें भी बहा कर ले जाये' यही मापदंड बना रखें हैं उसने अपने जीने के।

बेशक परेश को यह समय की बर्बादी लगता हो लेकिन उसने कभी रीमा को नही रोका। उसके और रीमा के बीच हमेशा के सन्तुलित दायरा रहा। इसकी आजादी जितना रीमा को है उतना उसे भी है। उसके विजनेस टूअरस में कभी रीमा ने हस्तक्षेप नही किया और न ही साथ चलने की इच्छा जताई। कभी परेश ने भी नही सोचा कि पत्नी भी साथ घूमने, रोमांस और प्रेम की आकाक्षीं होगी, इस बात की फुरसत उसे कभी नही रही। जिन्दगी के नाजुक और अहम पलों से वह हमेशा बेपरवाह रहा। बैंक बैलेंस, ऐशोआराम और लग्जरी लाइफ मुहिआ कराने में उसने कोई कसर नही छोड़ी है रीमा को कुछ भी माँगने की कभी जरूरत नही पड़ी।

यहाँ आते वक्त भी उसने कहा था कि 'गाड़ी ले जाओ, आराम से पहुँच जाओगी, ड्राइवर छोड़ देगा', मगर यह सारे जमीनी अनुभव कहाँ से मिलते? सो उसने मना कर दिया। वह इन आठ दिनों में परेश की पत्नी नही सिर्फ रीमा रहना चाहती है।

परेश निहायती सभ्य और सीमित बोलने वाला है हाँ ये बात और है कि उसकी नज़र में प्रेम, रोमांस की उतनी जगह नही है या यूँ कह लें कि वह प्रेम करने के लिये किसी औरत को नही ढूँढ़ता।

वह महोब्बत करता है अपने काम से, जिसे उसने कड़ी मेहनत से खड़ा किया है। इन सब का ताना-बाना बहुत पहले ही बुन गया था शायद उसी के तर्ज पर उसकी मानसिक ग्रंथियों ने अपना आकार ले लिया होगा।

ये बात तब की है जब वह बारहवीं में था। पिता जी एक विजनेस टूअर से लौट रहे थे रास्तें में कार दुर्घटना हुई और मौके पर ही उन्होनें दम तोड़ दिया। यह सब इतना आनन-फानन में हुआ कि संभलने का मौका ही नही मिला। बस जुट गया वह अपनी जिम्मेंदारियों में। इतनी कम उम्र में उसने और उसके दो बरस बड़े भाई ने पिता का छोड़ा विजनेस को आगे बढ़ाया है। दो बरस बड़ा होना कोई खास नही होता। उस वक्त दोनों ही एक-दूसरे का सहारा बने होगें। अलबत्ता ये कहना सही नही होगा कि परेश भावनाओं को न समझने वाला कठोर व्यक्ति है। कई बार जिम्मेंदारियों की नींव में भावनायें दबी होती हैं और व्यक्ति महल-पर- महल खड़ा करता चला जाता है, पर ये तय है वह महल हमेशा लचीला ही होगा, जिसमें तूफानों को पटखनी देने की ताकत तो होगी पर भीतर से कठोर नही होगा। भावनाओं को देखने की आँख तो होगी मगर उसमें डूबने का फैसला नही होगा। वह अपने-आप को बचाये रखेगा हर ऐसी स्तिथी से जो फिर से उसे कमजोर न कर दे।

सो ये फैसला वैसे तो रीमा का ही था मगर इसमें परेश का कोई खास दखल या विरोध नही था। अक्सर वह ऐसी स्तिथी में न्यूट्रल हो जाया करता है और अपना फैसला थोपता नही, हाँ विचारों के मामले में भी वह थोड़ा तंग जरुर है।

रीमा ने यह निर्णय जब लिया तब वह खुद को बहुत खाली और अकेला महसूस कर रही थी। जिन्दगी उबाऊ हो चली थी। होती भी क्यों न? हर औरत की तरह उसने भी सपनों के फन्दों को मिठास की चाशनी से बुना था। मगर किस्मत को कुछ और ही फैसला लिये बैठी थी, जहाँ एक-एक कर सब सपनें उधड़ने लगे थे। जिन्दगी के हर मोड़ पर सामंजस्य बिठाना औरत को बचपन से ही सिखाया जाता है वही घुटटी पीकर वह भी आई थी। बेशक वह अपने इम्तहान को पास करने की जद्दोजहद में लगी थी मगर उसके लिये तैयारी भी जरुरी है। यह तैयारी भी खास तरह की होती है जहाँ किसी से सीखा नही जा सकता अपनी भावनाओं को तोलने के लिये तराजू भी नही होता ..और व्यक्ति बिल्कुल अकेला होता है।

ऊर्जा को भरने के लिये और एक बेहतर जिन्दगी की आस के लिये आउटिंग एक बढ़िया साधन है बशर्ते, वह आपको पसंद हो। खास कर आपको जिस काम को करने में मजा आता है आप वहीं से अपनी ऊर्जा को पाते हैं।

खैर, रीमा यहाँ पर तब तक है, जब तक उसका दिल न भर जाये। वैसे तो आठ दिन का प्लान करके ही आई है पर कुदरत का नजारा देख लालच बढ़ गया है। उसने ठंडी साँस ली, ताकि कुछ देर उन अनचाही तस्वीरों से छुटकारा पाया जा सके।

क्रमश..